Tuesday, November 5, 2013

फिर से तुलसी चखते हैं | (Poetic attempts to strengthen long broken bonds)


(Nirmal (निर्मल) was my Grandfather's name and Vidya (विद्या) was my Grandmother's. 
I am dedicating this poem to our carefree days of childhood that are not riddled with fake egos of adulthood. I have no shame in saying things are wrong. I hope these poems affect those who share the same hurdles in adult relationships. Families grow up with love and break with age. No one says it out loud. I do. Lets hope anyone feeling or going through the same phase figures it out. Lets hope this poem helps them.)


जिन सीढ़ियों पे आठ जोड़े पैर
उंगलियाँ नापा करते थे,
उन पर अब हमारे अहम की नज़र भी जाना ना चाहे |

छोटी छोटी उँगलियों से
जिन छतों पर हम बाजे बजाते,
उन्ही छतों से ऊँचे बड़े अब बैर हैं हमारे |

सफ़ेद से अक्षर काले खम्बों पे
लिखा करते थे,
अरे हम धुलने वाली साड़ियों से 
घर बुना करते थे |

तुलसी को चखते थे,
आंगन में झूलते;
नाली से निकली हुई गेंद को
मार मार के सुखाना ना भूलते |

उन्ही काले खम्बों में और कपड़ों के ढेर में;
टूटे पुराने झूले,
और न जाने कितनी सूखी गेंदों में;
नरमी हमारी अटक गयी है |

मासूम से थे हम,
अब जान कर अंजान है;
पर क्या करें हम,
की ये दूरी हमें खटक नहीं रही है |

ये क्यूँ खटक नहीं रही है?

बचपन में ही छोड़ दिया वो निर्मल मन और उसकी विद्या.
इस उम्र की जिद हमसे छूट नहीं रही है |
अब इस उम्र की जिद हमसे टूट नहीं रही है |

बिनती है तुम सबसे,
आपस के दरवाज़े खोलो |
उसी निर्मल मन से,
चालों मिल कर हाथ जोड़ो |
दिल से उसकी विद्या को याद करते हैं,
चलो उसी आँगन मे, 
फिर से तुलसी चखते हैं |